उत्तराखंड की पारंपरिक निर्माण शैली: आपदाओं में भी अडिग मंदिर और भवन

उत्तराखंड की पारंपरिक निर्माण शैली: आपदाओं में भी अडिग मंदिर और भवन

देहरादून। इस साल डके मानसून ने उत्तराखंड में भूस्खलन, बाढ़ और भूधंसाव से भारी तबाही मचाई। कई सड़कें, पुल और आधुनिक इमारतें ढह गईं, लेकिन सदियों पुराने मंदिर और पारंपरिक भवनों को कोई खास नुकसान नहीं हुआ।

क्यों मजबूत हैं प्राचीन निर्माण?

भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार, पारंपरिक भवन स्थानीय भूगोल और जलवायु के अनुसार बनाए जाते थे। इनमें पत्थर, लकड़ी और मिट्टी का संतुलित उपयोग होता था। भार इस तरह बांटा जाता था कि आपदा के समय संरचना टिकाऊ बनी रहे। 2013 की केदारनाथ आपदा इसका बड़ा उदाहरण है, जब मंदिर सुरक्षित रहा लेकिन आसपास की नई इमारतें बह गईं।

कोटी बनाल शैली का कमाल

यमुनाघाटी के कोटी गांव में 1000 साल पुराने बहुमंजिला मकान आज भी मजबूती से खड़े हैं। कोटी बनाल शैली में दीवारों में लकड़ी और पत्थर का संयोजन किया जाता था, जिससे घर भूकंप और आपदाओं में लचीले बने रहते थे।

जमीन का बारीकी से निरीक्षण

इतिहासकार डॉ. अजय रावत के अनुसार, प्राचीन काल में निर्माण से पहले जगह का सालों तक परीक्षण किया जाता था। कठोर चट्टानों और सुरक्षित स्थानों पर ही इमारतें बनाई जाती थीं। इसके विपरीत, आज नदी-नालों और कमजोर मिट्टी पर अंधाधुंध निर्माण हो रहा है, जिससे पहाड़ियां दरक रही हैं।

बढ़ता निर्माण और खतरा

भूवैज्ञानिक त्रिभुवन सिंह पांगती का कहना है कि नैनीताल और जोशीमठ जैसे इलाके पहले ही अपनी क्षमता से ज्यादा आबादी और निर्माण झेल रहे हैं। लगातार हो रहे निर्माण से आपदाओं का खतरा और बढ़ रहा है। वहीं टपकेश्वर, मसूरी, देवप्रयाग, बदरीनाथ और केदारनाथ जैसे क्षेत्र कठोर चट्टानों पर बसे होने के कारण अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं।